सारकेगुडा फ़र्ज़ी मुठभेड़: मरने वालों में जवानों के साथ खेलने वाले बच्चे भी थे
छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले के सारकेगुडा में जून 2012 में सुरक्षाबलों के कथित नक्सल एनकाउंटर में 17 लोगों की मौत हुई थी जिनमें नाबालिग़ भी शामिल थे. इस मामले की जांच के लिए बनी जस्टिस वी.के. अग्रवाल कमिटी ने राज्य सरकार को बीते महीने रिपोर्ट सौंप दी.
इस रिपोर्ट में कहा गया कि है कि मारे गए सभी लोग स्थानीय आदिवासी थे और उनकी ओर से कोई गोली नहीं चलाई गई थी और न ही उनके नक्सली होने के सुबूत हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि लोगों को बहुत क़रीब से 'दहशत में' गोली मारी गई जबकि सुरक्षाबल के जवान आपस की क्रॉस फ़ायरिंग में घायल हुए.
इस घटना के तुरंत बाद 2012 में बीबीसी संवाददाता सलमान रावी ने सारकेगुडा का दौरा किया था.
ये पुल एक अघोषित सीमा है. पुल से पहले एक पुलिस थाना और अर्धसैनिक बलों का एक कैम्प है.
कहा जाता रहा कि भारत सरकार का अधिकार क्षेत्र उस पुल की सीमा पर ख़त्म हो जाता है और पुल के उस पार माओवादियों की सामानांतर सरकार यानी जनताना सरकार का इलाक़ा है.
कोई पुलिसवाला इस पुल को अकेले पार करने का जोखिम नहीं उठा सकता था. बाहर से आए लोगों के लिए वहाँ जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.
साल 2012 के 28 जून की आधी रात को ख़बर मिली कि सारकेगुडा में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के कोबरा बटालियन और माओवादियों के बीच मुठभेड़ हुई है जिसमे कई 'माओवादी' मारे गए हैं.
6 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात भी कही जा रही थी जिन्हें इलाज के लिए निकट के बड़े शहर भेज दिया गया था.
आश्चर्य वाली बात थी कि मारे जाने वाले लोगों में 8 नाबालिग़ बच्चे भी थे.
ये इलाक़ा सारकेगुडा थाने और पुलिस कैम्प लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर था और इस इलाक़े तक पहुंचने के लिए ज़िला मुख्यालय से लगभग 80 किलोमीटर का सफ़र करना होता था.
मैं रात में ही घटनास्थल के लिए निकल गया. तब तक मेरे फ़ोन की घंटियाँ बजने लगीं.
स्थानीय लोगों ने मुझे बताना शुरू किया कि ये मुठभेड़ माओवादियों के साथ हुआ ही नहीं है. वहां आसपास के ग्रामीण इलाके़ ही हैं.
चूँकि आधिकारिक रूप से कुछ भी पता नहीं चल पाया इसलिए मैं घटनास्थल के लिए चलता चला गया. लगभग दोपहर के 12 बज रहे थे जब मैं सारकेगुडा थाने के पास पहुंचा.
लेकिन वहां तक घने जंगलों से गुज़रते हुए कच्चे रास्ते को तय करना बहुत मुश्किल काम था. रास्ते में सुरक्षाबलों और पुलिस के कई चेक पोस्ट मिले जो बंद थे.
पुलिसकर्मी हमें आगे बढ़ने नहीं देना चाहते थे. जमकर तलाशियों का दौर शुरू हुआ और किसी तरह हम सारकेगुडा पहुँच पाए.
पैदल पुल पार कर हम माओवादियों के जनताना सरकार के इलाक़े में पहुँच गए.
पुलिस के लोग गाड़ियों को आगे जाने नहीं दे रहे थे. इस कारण गाड़ी वहीं छोड़ आगे का सफ़र पैदल तय किया.
राजपेंटा गाँव पहुंचे तो मातम छाया हुआ था. जगह-जगह गोलियों के ख़ाली खोखे नज़र आ रहे थे और लोगों में मातम.
ग्रामीणों के आरोप थे कि हमारे पहुँचने से पहले ही पुलिस के अधिकारियों ने वहां पहुंचकर गाँव के लोगों को धमकाने का आरोप लगाया. उनका आरोप सीआरपीएफ़ के डीआईजी और स्थानीय थाने के अधिकारियों पर था.
केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स के तत्कालीन छत्तीसगढ़ के आईजी ज़ुल्फ़िकार हसन ने मुझे बताया था कि सुरक्षाबलों को ख़बर मिली थी कि सारकेगुडा से 10 किलोमीटर दूर सिलगर में माओवादी छापामारों के जमा होने की सूचना मिली थी.
इस कारण अर्ध-सैनिक बल के जवान और स्थानीय पुलिस ने रात में ही अभियान शुरू किया था.
उन्होंने बताया कि कुछ ही दूरी पर रात के अँधेरे में उन्होंने कुछ लोगों का मजमा देखा था. उन्हें लगा कि सब माओवादी वहीं जमा हैं.
पुलिस का दावा था कि उन पर गोलिया चलीं जिसके बाद उन्होंने जवाबी कार्रवाई में गोलियां चलायीं.
इस रिपोर्ट में कहा गया कि है कि मारे गए सभी लोग स्थानीय आदिवासी थे और उनकी ओर से कोई गोली नहीं चलाई गई थी और न ही उनके नक्सली होने के सुबूत हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि लोगों को बहुत क़रीब से 'दहशत में' गोली मारी गई जबकि सुरक्षाबल के जवान आपस की क्रॉस फ़ायरिंग में घायल हुए.
इस घटना के तुरंत बाद 2012 में बीबीसी संवाददाता सलमान रावी ने सारकेगुडा का दौरा किया था.
ये पुल एक अघोषित सीमा है. पुल से पहले एक पुलिस थाना और अर्धसैनिक बलों का एक कैम्प है.
कहा जाता रहा कि भारत सरकार का अधिकार क्षेत्र उस पुल की सीमा पर ख़त्म हो जाता है और पुल के उस पार माओवादियों की सामानांतर सरकार यानी जनताना सरकार का इलाक़ा है.
कोई पुलिसवाला इस पुल को अकेले पार करने का जोखिम नहीं उठा सकता था. बाहर से आए लोगों के लिए वहाँ जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.
साल 2012 के 28 जून की आधी रात को ख़बर मिली कि सारकेगुडा में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के कोबरा बटालियन और माओवादियों के बीच मुठभेड़ हुई है जिसमे कई 'माओवादी' मारे गए हैं.
6 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात भी कही जा रही थी जिन्हें इलाज के लिए निकट के बड़े शहर भेज दिया गया था.
आश्चर्य वाली बात थी कि मारे जाने वाले लोगों में 8 नाबालिग़ बच्चे भी थे.
ये इलाक़ा सारकेगुडा थाने और पुलिस कैम्प लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर था और इस इलाक़े तक पहुंचने के लिए ज़िला मुख्यालय से लगभग 80 किलोमीटर का सफ़र करना होता था.
मैं रात में ही घटनास्थल के लिए निकल गया. तब तक मेरे फ़ोन की घंटियाँ बजने लगीं.
स्थानीय लोगों ने मुझे बताना शुरू किया कि ये मुठभेड़ माओवादियों के साथ हुआ ही नहीं है. वहां आसपास के ग्रामीण इलाके़ ही हैं.
चूँकि आधिकारिक रूप से कुछ भी पता नहीं चल पाया इसलिए मैं घटनास्थल के लिए चलता चला गया. लगभग दोपहर के 12 बज रहे थे जब मैं सारकेगुडा थाने के पास पहुंचा.
लेकिन वहां तक घने जंगलों से गुज़रते हुए कच्चे रास्ते को तय करना बहुत मुश्किल काम था. रास्ते में सुरक्षाबलों और पुलिस के कई चेक पोस्ट मिले जो बंद थे.
पुलिसकर्मी हमें आगे बढ़ने नहीं देना चाहते थे. जमकर तलाशियों का दौर शुरू हुआ और किसी तरह हम सारकेगुडा पहुँच पाए.
पैदल पुल पार कर हम माओवादियों के जनताना सरकार के इलाक़े में पहुँच गए.
पुलिस के लोग गाड़ियों को आगे जाने नहीं दे रहे थे. इस कारण गाड़ी वहीं छोड़ आगे का सफ़र पैदल तय किया.
राजपेंटा गाँव पहुंचे तो मातम छाया हुआ था. जगह-जगह गोलियों के ख़ाली खोखे नज़र आ रहे थे और लोगों में मातम.
ग्रामीणों के आरोप थे कि हमारे पहुँचने से पहले ही पुलिस के अधिकारियों ने वहां पहुंचकर गाँव के लोगों को धमकाने का आरोप लगाया. उनका आरोप सीआरपीएफ़ के डीआईजी और स्थानीय थाने के अधिकारियों पर था.
केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स के तत्कालीन छत्तीसगढ़ के आईजी ज़ुल्फ़िकार हसन ने मुझे बताया था कि सुरक्षाबलों को ख़बर मिली थी कि सारकेगुडा से 10 किलोमीटर दूर सिलगर में माओवादी छापामारों के जमा होने की सूचना मिली थी.
इस कारण अर्ध-सैनिक बल के जवान और स्थानीय पुलिस ने रात में ही अभियान शुरू किया था.
उन्होंने बताया कि कुछ ही दूरी पर रात के अँधेरे में उन्होंने कुछ लोगों का मजमा देखा था. उन्हें लगा कि सब माओवादी वहीं जमा हैं.
पुलिस का दावा था कि उन पर गोलिया चलीं जिसके बाद उन्होंने जवाबी कार्रवाई में गोलियां चलायीं.
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